रविवार, 23 जनवरी 2022

कितना अरसा लगा नाउम्मीदी के पर्वत से पत्थर हटाते हुए
एक बिखरी हुई लहर को राम करते हुए
नाख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं
रोशनी और अंधेरे की तफ़रीक में
कितने लोगों ने आँखें गँवा दी
कितनी सदियाँ सफ़र में गुज़ारीं
मगर आज फिर उस जगह हैं
जहां से हमें अपनी माओं ने रुखसत किया था
अपने सबसे बड़े ख़्वाब को
अपनी आँखों के सामने उजड़ते हुए देखने से बुरा कुछ नहीं है।
तेरी क़ुरबत में या तेरी दूरियों से जितनी गुज़ारी
तेरी चूड़ियों की क़सम ज़िंदगी दायरों के सिवा कुछ नहीं है
कोहनियों से हमें अपना मुंह ढाँक कर खाँसने को बड़ों ने कहा था
तो हम उन पर हंसते थे और सोचते थे कि इनको
टिश्यु पेपरों की महक से एलर्ज़ी है
लेकिन हमें ये पता ही नहीं था कि
उन पर वो आफ़ाक टूटी हैं जिनका हमें एक सदी बाद फिर सामना है।
बवा के दिनों में किसे होश रहता है
किस हाथ को थामना है किसे थामना है
एक रियाजी के उस्ताद ने अपने हाथों में परकार लेकर
ये दुनिया नहीं दायरा खींचना था
ख़ैर जो भी हुआ
तुम भी अपने पुरखों के नक़्शे कदम पर चलो
और अपनी हिफ़ाज़त करो
कुछ महीने तुम्हें अपने तस्मे नहीं बांधने हैं
उससे आगे तो तुमपे है
तुम अपनी मंज़िल पर पहुँचो या फिर रास्तों में रहो
इससे पहले कि तुम अपने महबूब को वेंटिलेटर पर देखो
घरों में रहो!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें